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अभ्रा॑जि॒ शर्धो॑ मरुतो॒ यद॑र्ण॒सं मोष॑था वृ॒क्षं क॑प॒नेव॑ वेधसः। अध॑ स्मा नो अ॒रम॑तिं सजोषस॒श्चक्षु॑रिव॒ यन्त॒मनु॑ नेषथा सु॒गम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhrāji śardho maruto yad arṇasam moṣathā vṛkṣaṁ kapaneva vedhasaḥ | adha smā no aramatiṁ sajoṣasaś cakṣur iva yantam anu neṣathā sugam ||

पद पाठ

अभ्रा॑जि। शर्धः॑। म॒रु॒तः॒। यत्। अ॒र्ण॒सम्। मोष॑थ। वृ॒क्षम्। क॒प॒नाऽइ॑व। वे॒ध॒सः॒। अध॑। स्म॒। नः॒। अ॒रम॑तिम्। स॒ऽजो॒ष॒सः॒। चक्षुः॑ऽइव। यन्त॑म्। अनु॑। ने॒ष॒थ॒। सु॒ऽगम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:54» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोगों से (यत्) जो (शर्धः) बल (अभ्राजि) प्रकाशित किया जाता और (अर्णसम्) जल को जो तुम लोग (मोषथ) चुराइये तो आप लोगों को जैसे (वृक्षम्) वट आदि वृक्ष को (कपनेव) पवनों के गमन वैसे हम लोग दण्ड देवें (अध) इसके अनन्तर हे (वेधसः) बुद्धिमान् जनो ! (सजोषसः) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले आप लोग (चक्षुरिव) नेत्र को जैसे वैसे (नः) हम लोगों के (अरमतिम्) रमणरहित (यन्तम्) प्राप्त होनेवाले (सुगम्) सुग अर्थात् उत्तमता से चलते हैं, जिसमें उसको (स्म) ही (अनु, नेषथ) अनुकूल प्राप्त कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो सब के शरीर और आत्मा के बल को प्रकाशित करते हैं, वे धन्य हैं और जो श्रेष्ठ विद्या और गुणों को चुराते, उनको धिक्कार धिक्कार ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मरुतो ! युष्माभिर्यच्छर्धोऽभ्राजि यदर्णसं यूयं मोषथ तर्हि युष्मान् वृक्षं कपनेव वयं दण्डयेयाध हे वेधसः ! सजोषसो यूयं चक्षुरिव नोऽरमतिं यन्तं सुगं स्मानु नेषथ ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभ्राजि) प्रकाश्यते (शर्धः) बलम् (मरुतः) मनुष्याः (यत्) (अर्णसम्) जलम् (मोषथ) चोरयत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृक्षम्) वटादिकम् (कपनेव) कपना वायुगतय इव (वेधसः) मेधाविनः (अध) अथ (स्म) (नः) अस्माकम् (अरमतिम्) अरमणम् (सजोषसः) समानप्रीतिसेविनः (चक्षुरिव) यथा चक्षुः (यन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (अनु) (नेषथ) नयथ। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये सर्वेषां शरीरात्मबलं प्रकाशयन्ति ते धन्या सन्ति ये च सद्विद्यागुणाँश्चोरयन्ति तान् धिग्धिक् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे सर्वांच्या शरीर व आत्म्याचे बल प्रकट करतात त्यांना धन्यवाद द्यावेत व जे श्रेष्ठ विद्या व गुण चोरून ठेवतात त्यांचा धिक्कार करावा. ॥ ६ ॥